तेरे मेरे प्रेम की धरातल
ऊबड़-खाबड़ है बड़ी
चलना
इसपर
दुर्गम जान पड़ता है
एक पर्वतारोही की तरह
सदियों के सफर के बाद भी
आराम नही मिला है
अभीतक
दिल को
चैन और क़रार भी छीन गया है
मुद्दत पहले ही
एक तरफ तुम्हारे चलने से
दूसरे तरफ मेरे चलने से।
रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज