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बुधवार, 27 फ़रवरी 2019

विसर्जित कर आया मैं

विसर्जित कर आया मैं 
तेरा दिया सबकुछ 

लाखो बार 
देखने पर 
देख लिया करते थे 
बेमन ही 
एक-दो बार 

वो नजर 

तुम्हें पाने की चाहत धरे 
जेब में रूपए-पैसे की तरह 
भटकते वहाँ
जहाँ एक्का-दुक्का ही गये होंगे तुम 

वो आवारगी

मुझसे बोलने-बतियाने के लिए 
तुम्हें फुर्सत कब थी 
जबकि मेरी पूरी जिन्दगी प्यार की 
फुर्सत से तुम्हें सोचने 
सराहने में गुजरी हैं 

वो फुर्सत 

तालाब पर 
जैसे कागज की नाँव तैर रही हो 
हजारो बातें सोच-सोचकर
लिखा करता था 
आधी रात में 
तुम्हारे अनुपस्थिति में 
अपने गहरे एकांकीपन में 

वो प्रेम-पत्र 

सोचता था 
किसीदिन यु भी होंगा 
तुम्हारी नजर प्यार से उठेंगी मेरी तरफ 
पंछी के तरह फडफडाते हुए 
आ लिपटोगी 
मेरे सीने से 

वो सोच 

विसर्जित कर आया मैं 
वो सबकुछ 
जिसका न होना 
तय था 
बहुत पहले से 

वो होने न होने की वजह 

रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

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सोचता हूँ.. तुम होते यहाँ तो  बहार होती बेरुत भी  सोचता हूँ.. तुम्हारा होना , न होना  ज्यादा मायने नही रखता यार !  यादों का भी साथ बहुत होता...