बड़े ही संगीन जुर्म को अंजाम दिया
तुम्हारी इन कजरारी आँखों ने
पहले तो नेह के समन्दर छलकते थे इनसे
पर अब नफरत के ज्वार उठते हैं इनमे
मुझे दीखते
मुझे दीखते
ये तुम्हारी कजरारी आँखें
जंगल में लगी आग की तरह
फैलाती है
बेचैनी
मुझमें
मैं कहाँ चला जाऊ
कि इनसे सामना ना हो कभी
यही सोचता रहता हूँ ..
समझ से परे है यारों को भी समझा पाना
कि डाकूओं की टोली आती हो जैसे
दिन-दहाड़े
मुझे लूटने
हाँ, तुम्हारी ही ये कजरारी आँखें !
जबकि मेरे पास कुछ भी नही बचा
फिरभी
-रवीन्द्र भारद्वाज
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंआभार... जी सह्दय आदरणीया
हटाएंआभार जी सादर
जवाब देंहटाएंइस रचना को "चर्चामंच" में जगह देने के लिए
बहुत खूब
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय
हटाएंबहुत ही सुंदर । सारा दोष आँखों का ही है।
जवाब देंहटाएंसच कहा आदरणीय
हटाएंआभार आदरणीय सादर
क्या ये कजरारी आँखें चुनाव में खड़ी किसी महिला प्रत्याशी की हैं जो कि चुनाव में हार गयी है?
जवाब देंहटाएंज़ाहिर है कि वोट मांगते समय उन आँखों में प्यार रहा होगा और चुनाव में हारने के बाद उन में आग बरसाती नफ़रत घर कर गयी होगी!
बहुत खूब....लाजवाब व्यंग
हटाएंउस महिला प्रत्याशी के परिप्रेक्ष्य में यह रचना सटीक जान पड़ता हैं
हृदयतल से आभार आपका
बहुत खूब
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीय सादर
हटाएंबहुत खूब..
जवाब देंहटाएंआभार आपका सादर
हटाएंबहुत ही सुंदर रचना प्रिय रवीन्द्र जी | चित्र के बहाने से उम्दा लेखन ! शुभकामनायें |
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
८ अप्रैल २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
सहृदय आभार आदरणीया इस रचना को 'पांच लिंकों का आनंद' पर स्थान देने के लिए सादर
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सृजन....
जवाब देंहटाएंवाह!!!
जी अत्यंत आभार आपका
हटाएंबेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 06 अगस्त 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबढ़िया |
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