इन वादियों और फिजाओं में
वो करार नहीं
जो मिलता था
हमसे गले
वर्षो पहले
पंछी से
बेगाने हो गये तुम
नदी सी
पवित्र हो गयी तुम
मिट्टी सी
सोंधी हो गयी तुम
अबभी इक टिस सी उठती हैं
जब कभी याद आता हैं
कैसे भूल गये तुम मुझें
याद ही हैं कि
तुम सूरज की किरणों सी गिरती हो
मुझपर
वरना
साक्षात् देखे एक-दुसरे को
अरसा हुआ
मूर्छित होने लगता हैं ये जीवन
जब कोई लंगोटिया यार जिक्र कर देता हैं
अब्बे वो कैसी हैं
तुम्हारे बगैर तो जीना ही नही चाहती थी एकपल
मुझे याद हैं
तकरीबन चार-पाँच बरस पहले
उसे आयी थी याद मेरी
तब कॉल करके पूछी थी
कैसे हो !
बड़ा अटपटा सा लगा था
कैसे हो – सुनकर
जवाब हलक में अटक गया था
और कॉल भी कट चुका था
कविता - रवीन्द्र भारद्वाज
चित्र - गूगल से साभार