धर्म
धर्म दो धारी तलवार है !
अन्धानुसरण भी बुरा है
और उपेक्षित मन से इसे देखना भी बुरा है
किन्तु गला तो दोनों ही सुरत में कटना है
ईश्वर
कोई मुझसे एकदिन पूछ बैठा
तुम नास्तिक हो कि आस्तिक !
..मन्दिर तो तुम जाते हो लेकिन पूजा-पाठ नही करते क्यों !
मैंने कई तर्क दिए यथा मुझे दूसरे के आस्था की परवाह है इसलिए मन्दिर जाता हूँ..
लेकिन मुझे ईश्वर पर उतना विश्वास नही
जितना होना चाहिए..
दरअसल, आजतक मैंने किसीको नही सुना
यह कहते हुए कि
ईश्वर है !
यह कहते हुए जरुर सुना है कि
ईश्वर है मगर नजर नही आता हरकिसीको !
धर्मउपदेशक
धर्मउपदेशक धर्म की व्याख्या मनमानी करते है
और ईश्वर की प्रशंसा करते नही थकते
लेकिन उनको मेरा सुझाव है कि
धर्म को कर्म से मिलाये
और धर्म को धर्म ही बनाये रखने की कोशिश करे
न कि व्यवसाय !
कविता - रवीन्द्र भारद्वाज
चित्र - गूगल से साभार