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मंगलवार, 29 जनवरी 2019

जनाब ये इश्क हैं कुछ और नही

अब तेरी खैर नही 
तुझे अपने ही हरायेंगे कोई गैर नही. 

गुलाब के पंखुड़ी से खुले दो होठ हैं 
बड़ी कातिलाना निकलता उसमें से शोर हैं. 

मुझे इक था तुमपर भरोसा 
भरोसा तोड़ा तुमने ही चलो कोई बैर नही.

दूर हैं मंजिल और सुदूर हैं किनारा 
मझधार में हम-तुम हैं कोई और नही. 

लिखे खत फिर खत हमने फाड़ दिए 
वो पहुचेंगा ही नहीं जब उनके पास. 
(सोच-सोचकर)

गले का फास हैं हमारा प्यार उन सबके लिए 
जिन्हें मालूमात हो गया 
जनाब ये इश्क हैं कुछ और नही. 

हम तुमपे न मरते तो मरता कोई और 
फिर जान निकलती मेरी 
जब-जब प्यार से तकरार करता वो. 

रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

सोचता हूँ..

सोचता हूँ.. तुम होते यहाँ तो  बहार होती बेरुत भी  सोचता हूँ.. तुम्हारा होना , न होना  ज्यादा मायने नही रखता यार !  यादों का भी साथ बहुत होता...