पलाश को
मैंने देखा नहीं अभीतक
साक्षात्
या हो सकता हैं
देखा हूँगा
पर ठीक से
याद नहीं
कब
सूना हैं
बसंत यही से कूदता हैं
धरती पर
पलाश का पुष्प
लाल होता हैं
खून से भी ज्यादा लाल
पढ़ा हैं
अनेकानेक कविताएँ
पलाश को स्पर्श करती हुई
पलाश
कविजन को
भाता हैं बहुत
तभी तो देखते ही
पलाश पर
रच डालते हैं कविताएँ
कि सदियों तक
खिला रहे
ठीक ऐसे ही
जैसे अभी खिला होता हैं
सूना हैं
वर्ष में सिर्फ एकबार ही
खिलता है पुष्प इसपर
और जल्द ही
विलुप्त भी हो जातें हैं
जिसदिन
मेरे भाग खुलेंगे
देख ही लूंगा
भाई पलाश तुमको
- रवीन्द्र भारद्वाज