चार दिन की चाँदनीं था मेरा प्यार
फिर तो उसके आसमान में
विरह की घटा ऐसे छायी कि
देह दुबली होती गई
इश्क़ अविरल होता गया
सैकड़ो कष्ट मानो हथौड़े के प्रहार समान
गिरता रहा
मुझपर
और मैं चुपचाप झेलता रहा
हाँ, बस आह ! निकली होगी
वो भी कभी कभार
मुझपर
जो बीती
उसके वजह से
वह अगर जानती भी तो कहती -
कम हैं
किसे फर्क पड़ता हैं
जिस तन को लगे
जिस मन को लगे
अगर उसे नही
तो किसे
फर्क पड़ता हैं
विरह-वेदना का !
कविता - रवीन्द्र भारद्वाज
चित्र - गूगल से साभार