सघन जंगल की तन्हाई
समेटकर
अपनी बाहों में
जी रहा हूँ
कभी
उनसे भेंट होंगी
और तसल्ली के कुछ वक्त होंगे
उनके पास
यही सोचकर
जी रहा हूँ
जी रहा हूँ
जीने का सलीका भूलकर
यादों को कुरेदकर
आग की सी प्यास कण्ठ में रोककर
- रवीन्द्र भारद्वाज
प्रेम अनुभूति का विषय है..इसीलिए इसकी अभिव्यक्ति की जरूरत सबको महसूस होती है.. अतः,अपनी मौलिक कविताओं व रेखाचित्रो के माध्यम से, इसे अभिव्यक्त करने की कोशिश कर रहा हू मैं यहाँ.
सोचता हूँ.. तुम होते यहाँ तो बहार होती बेरुत भी सोचता हूँ.. तुम्हारा होना , न होना ज्यादा मायने नही रखता यार ! यादों का भी साथ बहुत होता...
बेहतरीन अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंआभार आपका सादर
हटाएंमित्र, क्या देवदास बनने की पूरी तैयारी कर ली है?
जवाब देंहटाएं............. नहीं आदरणीय
हटाएंआभार आपका 🙏 सादर
हटाएंवाह!सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंआभार आपका
हटाएं🙏 सादर
हटाएंहृदय स्पर्शी सृजन, वेदना के स्वर।
जवाब देंहटाएंसुंदर सृजन।
आभार आपका 🙏 सादर
हटाएंसह्दय आभार 🙏 आदरणीय
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