बड़े ही संगीन जुर्म को अंजाम दिया
तुम्हारी इन कजरारी आँखों ने
पहले तो नेह के समन्दर छलकते थे इनसे
पर अब नफरत के ज्वार उठते हैं इनमे
मुझे दीखते
मुझे दीखते
ये तुम्हारी कजरारी आँखें
जंगल में लगी आग की तरह
फैलाती है
बेचैनी
मुझमें
मैं कहाँ चला जाऊ
कि इनसे सामना ना हो कभी
यही सोचता रहता हूँ ..
समझ से परे है यारों को भी समझा पाना
कि डाकूओं की टोली आती हो जैसे
दिन-दहाड़े
मुझे लूटने
हाँ, तुम्हारी ही ये कजरारी आँखें !
जबकि मेरे पास कुछ भी नही बचा
फिरभी
-रवीन्द्र भारद्वाज