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सोमवार, 26 नवंबर 2018

हम हमारे रहे


आज फिर
तुम्हारा बाल
खुला था

जुल्फों में
सघन जंगल का
अंधेरा था

मैं
उनमे ही
खुदको खो देना चाहता था

कुछ इस तरह से
कि मैं किसीका खैर-खबर ना लू
ना तुम लो

कि हम
हमारे रहे
हमेशा बस हम हमारे रहे.

रेखाचित्र व कविता -रवीन्द्र भारद्वाज



सोचता हूँ..

सोचता हूँ.. तुम होते यहाँ तो  बहार होती बेरुत भी  सोचता हूँ.. तुम्हारा होना , न होना  ज्यादा मायने नही रखता यार !  यादों का भी साथ बहुत होता...