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शनिवार, 2 मार्च 2019

प्रणय मेरा अभिशाप बना

प्रणय मेरा अभिशाप बना 

ना जी ही पाता हूँ 
ना मर ही पाता हूँ 
ठीक से 

लाख कोशिशों के बावजूद 
मैं इससे मुक्त भी नही हो पाया हूँ 

गोधूली बेला में 
वह पायल छनकाती 
रातरानी की ख़ुशबू उड़ाती
आ ही जाती हैं 
मेरे कमरे में 

उसकी शीतल स्पर्श के बावजूद 
आग धधकती रहती हैं 
तन-मन में 

खाबो-ख्यालो से ढका मेरा जीवन 
बस उसकी ही गोद में अंतिम सांस लेना चाहता हैं 

रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

सोचता हूँ..

सोचता हूँ.. तुम होते यहाँ तो  बहार होती बेरुत भी  सोचता हूँ.. तुम्हारा होना , न होना  ज्यादा मायने नही रखता यार !  यादों का भी साथ बहुत होता...