प्रणय मेरा अभिशाप बना
ना जी ही पाता हूँ
ना मर ही पाता हूँ
ठीक से
लाख कोशिशों के बावजूद
मैं इससे मुक्त भी नही हो पाया हूँ
गोधूली बेला में
वह पायल छनकाती
रातरानी की ख़ुशबू उड़ाती
आ ही जाती हैं
मेरे कमरे में
उसकी शीतल स्पर्श के बावजूद
आग धधकती रहती हैं
तन-मन में
खाबो-ख्यालो से ढका मेरा जीवन
बस उसकी ही गोद में अंतिम सांस लेना चाहता हैं
रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज