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शनिवार, 13 अक्तूबर 2018

आओ ना

तुम आओ ना
सासों का डोर थामने
बहके-बहके से है जो.

उदासी के भीड़-भाड़ में
मै ही नही अकेला
अवसादग्रस्त




















तुम आओ ना
अपना अकेलापन लेकर
मेरे ह्दय का दरवाजा हमेशा से खुला है
तुम्हारे लौटने का आश लिए.
रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज



सोचता हूँ..

सोचता हूँ.. तुम होते यहाँ तो  बहार होती बेरुत भी  सोचता हूँ.. तुम्हारा होना , न होना  ज्यादा मायने नही रखता यार !  यादों का भी साथ बहुत होता...