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शुक्रवार, 23 नवंबर 2018

नदी को कब रोंका था मैंने

बदल जाना इतना तेरा 
जितना इंसान नही बदलता

नदी को कब रोका था मैंने
वह बहती ही रही
अनवरत

पर मुझे अपने अंदर नही रहने दी
हालांकि शीतलता, निर्मलता बहुत गहरे तक थी
उसमे.

एक भूल या गलती थी मेरी कि
मेरे आस-पास भी नही भटकती दिखती
तुम्हारी रूह.

हालांकि
मुझसे जबरन लिपटी रही थी
सदियों तक
तुम्हारी रूह.

रेखाचित्र व कविता -रवीन्द्र भारद्वाज




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सोचता हूँ.. तुम होते यहाँ तो  बहार होती बेरुत भी  सोचता हूँ.. तुम्हारा होना , न होना  ज्यादा मायने नही रखता यार !  यादों का भी साथ बहुत होता...