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शुक्रवार, 3 मई 2019

चाहकर भी तुम नही लौट सकती

चाहकर भी तुम नही लौट सकती 

चाहकर भी मैं तुम्हें नही बुला सकता 

मजबूरियों के पर निकल आये है 
चील के तरह मडराते रहते है 
आसमान में 
जिन्दगी के 

राते जलती रहती है 
तुलसी के नीचे रखे साँझ के दिया की तरह 
कि तुम गर लौटो कभी तो 
घर पहचान लो मेरा 

रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

सोचता हूँ..

सोचता हूँ.. तुम होते यहाँ तो  बहार होती बेरुत भी  सोचता हूँ.. तुम्हारा होना , न होना  ज्यादा मायने नही रखता यार !  यादों का भी साथ बहुत होता...