शुक्रवार, 3 मई 2019

चाहकर भी तुम नही लौट सकती

चाहकर भी तुम नही लौट सकती 

चाहकर भी मैं तुम्हें नही बुला सकता 

मजबूरियों के पर निकल आये है 
चील के तरह मडराते रहते है 
आसमान में 
जिन्दगी के 

राते जलती रहती है 
तुलसी के नीचे रखे साँझ के दिया की तरह 
कि तुम गर लौटो कभी तो 
घर पहचान लो मेरा 

रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

9 टिप्‍पणियां:

  1. गहरी संवेदना लिए उम्दा प्रस्तुति।

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (04-05-2019) को "सुनो बटोही " (चर्चा अंक-3325) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    ....
    अनीता सैनी

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    उत्तर
    1. चर्चामंच में इस रचना को साझा करने के लिए आभार जी सादर

      हटाएं
  3. मन की सुंदर अभिव्यक्ति।

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