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मंगलवार, 18 दिसंबर 2018

उनदिनों हँसती भी थी तुम खूब

अब देखकर तुमको 
यकीन नही होता 
कि तुम वही हो 
जो मुझपे मरती थी कभी 

गालो पर 
हल्का सा गढ्ढा 
बनता था 
उनदिनों हँसती भी थी तुम खूब 

हवा में उड़-उड़ जाती थी 
रेशम की वो गुलाबी ओढ़नी
जिसे महीने में दो-एक बार लगाती थी तुम 

जिस किसीदिन 
मैं तुम्हारा पीछा करता 
मुझसे पीछा छुड़ाने के लिए 
साईकिल का पैन्डील तेज मारती 
तब तुम सातवे आसमान पर पहुँचना चाहती थी न !
- रवीन्द्र भारद्वाज 

सोचता हूँ..

सोचता हूँ.. तुम होते यहाँ तो  बहार होती बेरुत भी  सोचता हूँ.. तुम्हारा होना , न होना  ज्यादा मायने नही रखता यार !  यादों का भी साथ बहुत होता...