अब देखकर तुमको
यकीन नही होता
कि तुम वही हो
जो मुझपे मरती थी कभी
गालो पर
हल्का सा गढ्ढा
बनता था
उनदिनों हँसती भी थी तुम खूब
हवा में उड़-उड़ जाती थी
रेशम की वो गुलाबी ओढ़नी
जिसे महीने में दो-एक बार लगाती थी तुम
जिस किसीदिन
मैं तुम्हारा पीछा करता
मुझसे पीछा छुड़ाने के लिए
साईकिल का पैन्डील तेज मारती
तब तुम सातवे आसमान पर पहुँचना चाहती थी न !
- रवीन्द्र भारद्वाज