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तन की आग बूझें ना बूझें सही
पर मन की आग बुझा दो
कुछ इस तरह
मुझें अपने सीने से लगा
पलभर को सही सुला दो
मैं बरसों से जाग रहा हूँ
बेकरारी का धूल फांक रहा हूँ
किसीरोज चैन से नही सोया
नींद से जगा देते हैं
बूरे सपने
तेरे लौटने का रास्ता
सदियों से ताक़ रहा हूँ
कब लौटोंगी
क्या कभी नही !
कविता - रवीन्द्र भारद्वाज
चित्र - गूगल से साभार