तन की आग बूझें ना बूझें सही
पर मन की आग बुझा दो
कुछ इस तरह
मुझें अपने सीने से लगा
पलभर को सही सुला दो
मैं बरसों से जाग रहा हूँ
बेकरारी का धूल फांक रहा हूँ
किसीरोज चैन से नही सोया
नींद से जगा देते हैं
बूरे सपने
तेरे लौटने का रास्ता
सदियों से ताक़ रहा हूँ
कब लौटोंगी
क्या कभी नही !
कविता - रवीन्द्र भारद्वाज
चित्र - गूगल से साभार
बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंजी बहुत-बहुत आभार... आदरणीया
हटाएंसुन्दर!
जवाब देंहटाएंजी बहुत-बहुत आभार आदरणीय
हटाएंब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 10/03/2019 की बुलेटिन, " एक कहानी - मानवाधिकार बनाम कुत्ताधिकार “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन में इस रचना को सम्मिलित करने के लिए आभार ......सादर
हटाएंबहुत सुंदर भावपूर्ण कविता
जवाब देंहटाएंअत्यंत आभार आदरणीय
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