चार दिन की चाँदनीं था मेरा प्यार
फिर तो उसके आसमान में
विरह की घटा ऐसे छायी कि
देह दुबली होती गई
इश्क़ अविरल होता गया
सैकड़ो कष्ट मानो हथौड़े के प्रहार समान
गिरता रहा
मुझपर
और मैं चुपचाप झेलता रहा
हाँ, बस आह ! निकली होगी
वो भी कभी कभार
मुझपर
जो बीती
उसके वजह से
वह अगर जानती भी तो कहती -
कम हैं
किसे फर्क पड़ता हैं
जिस तन को लगे
जिस मन को लगे
अगर उसे नही
तो किसे
फर्क पड़ता हैं
विरह-वेदना का !
कविता - रवीन्द्र भारद्वाज
चित्र - गूगल से साभार
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
१८ मार्च २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
जी बहुत-बहुत आभार आदरणीया
हटाएंइस रचना को 'पांच लिंकों का आनंद' में साझा करने के लिए
वाह!बहुत खूब!!
जवाब देंहटाएंजी अत्यंत आभार आदरणीया
हटाएंवाह बहुत गहराई को छूती मनोदशा।
जवाब देंहटाएंसुंदर सृजन।।
जी हृदयतल से आभार आदरणीया
हटाएंबहुत खूब ......
जवाब देंहटाएंजी अत्यंत आभार आदरणीया
हटाएंबहुत हृदयस्पर्शी...
जवाब देंहटाएंजी अत्यंत आभार आदरणीया
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंजी अत्यंत आभार आपका
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