विसर्जित कर आया मैं
तेरा दिया सबकुछ
लाखो बार
देखने पर
देख लिया करते थे
बेमन ही
एक-दो बार
वो नजर
तुम्हें पाने की चाहत धरे
जेब में रूपए-पैसे की तरह
भटकते वहाँ
जहाँ एक्का-दुक्का ही गये होंगे तुम
वो आवारगी
मुझसे बोलने-बतियाने के लिए
तुम्हें फुर्सत कब थी
जबकि मेरी पूरी जिन्दगी प्यार की
फुर्सत से तुम्हें सोचने
सराहने में गुजरी हैं
वो फुर्सत
तालाब पर
जैसे कागज की नाँव तैर रही हो
हजारो बातें सोच-सोचकर
लिखा करता था
आधी रात में
तुम्हारे अनुपस्थिति में
अपने गहरे एकांकीपन में
वो प्रेम-पत्र
सोचता था
किसीदिन यु भी होंगा
तुम्हारी नजर प्यार से उठेंगी मेरी तरफ
पंछी के तरह फडफडाते हुए
आ लिपटोगी
मेरे सीने से
वो सोच
विसर्जित कर आया मैं
वो सबकुछ
जिसका न होना
तय था
बहुत पहले से
वो होने न होने की वजह
रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज
bahut khoob
जवाब देंहटाएंजी सह्दय आभार....... आदरणीया
हटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंजी सह्दय आभार...... आदरणीया
हटाएंबेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंजी सह्दय आभार...... आदरणीया
हटाएंअति सुन्दर
जवाब देंहटाएंजी सह्दय आभार आदरणीया
हटाएंसीधे दिल से की गयी भावुक मन की अभिव्यक्ति!
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत आभार .......आदरणीय
हटाएं