शुक्रवार, 2 अगस्त 2019

कोई तो रास्ता होगा

कोई तो रास्ता होगा 
जहाँ हम दिख जाये 
अचानक से
एक-दूसरे को 

और गले मिलकर
मिटा दे 
सारे शिकवे-गिले

शहरो में जब शाम होती है
सुबह समझकर निकलते है घर से लोग 
ऐसे ही तुम भी निकला करो 
घर से बाहर
कि हो कही आमना-सामना
हमारा-तुम्हारा 
-सोचकर

रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

मंगलवार, 30 जुलाई 2019

जाते वक्त

उसने मुड़कर देखना भी उचित ना समझा 
जाते वक्त 

और ना ही समझाके गया कि 
ये प्यार नही कुछ और है 
पागलपन जैसा 

फिर 
वो जो सर पर से आसमान जैसे गुजरा 
वो क्या था

रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

गुरुवार, 25 जुलाई 2019

नही भागना मुझे !

चलो भाग चलते है कही..

बहुत घुट-घुटकर जिया हमने 

बहुत खयाल रख लिया 
अपनो का भी 
लोगो का भी 

लोग कह रहे है -
जमाना बदल रहा है
विजातीय शादी-विवाह शहरों 
और गाँवो में भी हो रहा है
बड़े ही धूमधाम से 

लेकिन नही 
बस कहने में हो रहा है ऐसा 

हाँ, बस तुम ना बदलना 
या मुझे छोड़ परदेस में अकेला 
ना भाग जाना
ऐसा होता है बहुत ज्यादा 
परदेस में 

लेकिन बाबू की याद आयेगी 
अम्मा मना लेगी हिया को 
लेकिन भईया का गुस्सा 
नही बाबा नही भागना मुझे !

रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

बुधवार, 24 जुलाई 2019

दिल खोलकर हँसता हूँ कि

दिल खोलकर हँसता हूँ 
कि सब गम चिड़ियों के झुंड की तरह उड़ जाये 

लेकिन एक-दो ऐसी भी चिड़िया है 
जो जँगले पे 
मेरे दिल के 
घर बनाकर रहने लगी है 

उन्हें उड़ाना भी नही बनता मुझसे
ना ही दाना खिलाना 

सुबह-शाम वो इतना खुश होकर चहकती है कि 
मेरी नींद, मेरा चैन दरकने लगता है 
खण्डहर वाले मकान में आये झंझावात से गिरने ही वाली दीवार की तरह

कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

चित्र - गूगल से साभार


सोमवार, 22 जुलाई 2019

अहसास

अहसास को जब बुनना शुरू किया 
तब नही मालूम था 
कि एकदिन यह प्यार का चादर हो जायेगा 

जिसे ओढ़कर सारी उम्र काटनी होगी 

और उसे 
इसका अहसास तक नही होगा शायद

चादर 
चाहे जितनी फटी-पुरानी होगी 
अपनापन गाढ़ा होता जायेगा 
उससे 
ये न सोचा था 
लेकिन ठीक ऐसा ही हुआ 

उस चादर को ओढ़ते-ओढ़ते
रोए बढ़ते गये 
शरीर पर 
अपनेपन का 

और अब अगर उसे उतार भी दे तो भी 
वो अहसास नही जायेगा
जिसे ओढ़कर 
जिया 
आधा से ज्यादा उम्र

कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

चित्र - गूगल से साभार


बुधवार, 17 जुलाई 2019

एक रात बरसात की

एक रात थी 
बरसात की
चन्द लम्हों का सफर था वो 

हमने तय किया उस सफर को 
सदियों से लम्बा

हथेलियां एक-दूसरे से गले मिली थी 
छतरी से फिसलके बूंदे 
बौछारों से भिंगो रही थी 
हमें

सिहरन सी दौड़ती तन-मन में 
जब बूंदे बहती 
नहर सी
हमारे शरीर के इस छोर से उस छोर 

और 
और करीब होते जाते थे तब हम।

कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

चित्र - गूगल से साभार


रविवार, 14 जुलाई 2019

तू जो लौटा होता

तू जो लौटा होता 
पाया होता बदला हुआ मुझे

जबकि बदलाव मुझमे न था 
-तुम कहती थी

तुम्हारे साथ रहते नही बदला 
रत्तीभर

लेकिन तुम्हारे जाने के बाद 
मैं इतना बदल गया हूँ कि
अगर कोई मेरे ही नाम से मुझे पुकारता है तो 
किसी दूसरे शक्स को पुकारने की आवाज सुनाई देती है मुझे !

रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

सोचता हूँ..

सोचता हूँ.. तुम होते यहाँ तो  बहार होती बेरुत भी  सोचता हूँ.. तुम्हारा होना , न होना  ज्यादा मायने नही रखता यार !  यादों का भी साथ बहुत होता...