सोमवार, 1 अप्रैल 2019

गेंहू की फ़सल पक गई

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गेंहू की फ़सल पक गई

धूप भी गुस्से में रहने लगा है

नदियों का गला सूखता जा रहा है

बच्चे, बुढ्ढे अपना शर्ट, कुर्ता
उतार रखने लगें है
अलगनी पर 

स्कूल की छुट्टियाँ कब होंगी..
यही बात 
कक्षा दर कक्षा घुमती हुई 
भटक जा रही है

कविता - रवीन्द्र भारद्वाज 

चित्र - गूगल से साभार 

रविवार, 31 मार्च 2019

मेरी तरह वो भी

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घर सुनसान हो जाता हैं 
जब बच्चें अपने पढने चले जाते हैं 

उनके जाते ही 
घर के कोने-अतरे में जाकर छिप जाती हैं 
चंचलता 

मेरी तरह वो भी उनके लौटने का इन्तजार करते हैं..

कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

चित्र - गूगल से साभार 

शुक्रवार, 29 मार्च 2019

एक आँसू की कीमत तुम क्या जानों !

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एक आँसू की कीमत तुम क्या जानों !

जब दर्द सम्हालें नही सम्हलता हैं
तो आ ही जाता हैं
आँसू
बाहर

बाहर
आकर भी
आंसू 
अगर दर्द को न समझा पाये
अपना
अपनों को
तो बेकार ही समझों
हैं अपनों की संवेदना !

कविता – रवीन्द्र भारद्वाज

चित्र – गूगल से साभार

सबका हश्र बुरा होता हैं प्यार में

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तिनका जितना 
रखना 
ग़वारा न समझा 
उसने 
मुझे 
अपनी जिन्दगी में 

जानता हूँ 
सबका हश्र बुरा होता हैं 
प्यार में 
मेरा भी हुआ 
अब बात पते की लगने लगी हैं 

प्यार पर बनी फ़िल्में भी 
नायक और नायिका के 
बुरे हश्र की गाथा गाती नजर आती हैं 
ज्यादातर 

असल में 
प्यार उतना भी बुरा नहीं 
जितना हमने माना हैं 
समझा हैं 
जाना हैं 

लेकिन उसने ये मानकर बहुत बड़ी गलती की 
कि
प्यार हैं बस थोथी कल्पना 

कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

चित्र - गूगल से साभार 


गुरुवार, 28 मार्च 2019

अब सबकुछ रफूचक्कर हो चुका हैं

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उसे 
मुझसे ही प्यार था 
भले न कह सकी वो 
मुझसे 

उसकी बातों में दम था 
मैंने सोचकर सारी बातें 
यही निष्कर्ष निकाला हैं 

मेरे बाद उसका क्या होंगा 
यही बात दिन-रात खटकती थी 

लेकिन 
अब सबकुछ रफूचक्कर हो चुका हैं 
जबसे निर्णय किया उसने 
न लौटने का 
मेरे जीवन में 
फिर से 

कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

चित्र - गूगल से साभार 

बुधवार, 27 मार्च 2019

मन्दिर नही जाना पड़ेगा

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जब घर में दुनिया समा जाये 
तो वो घर, घर नही रह जाता 

जब छोटे बोलने लगे बेहद 
बुजुर्गो की बातें कौन सुने तब 

रुत होता हैं रार, तकरार का 
हर बखत लड़ने-झगड़ने से हल नही निकलता कोई 

'गुरुदेव 'की मानों तो 
घर में बना लो अगर शांति तो 
मन्दिर नही जाना पड़ेगा 
सुबहो-शाम 

कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

चित्र - गूगल से साभार 

सोमवार, 25 मार्च 2019

नदियाँ अगर बची-खुची हैं तो

नदियाँ अगर बची-खुची हैं तो 
शवदाह के लिए ..

नदियों के गर्भ में 
जो मछलियाँ, केकड़े, झिंगें ..
हैं 
वो हमारे पेट में आने से पहले तक ही 
सुरक्षित और आजाद हैं 

नदियों से हमारा नाता पुश्तैनी रहा हैं 
मन जबभी खिन्न होता था 
आकर इसके किनारों पर 
(हमारे पूर्वज को )
तात्विक बातों का भेद मिलता था 

अब विरले जगहों पर ही 
नांवे चलती हैं 
और शौकियां ही यात्राएं होने लगी हैं 
ज्यादातर 
इसपर 

कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

चित्र - गूगल से साभार 


सोचता हूँ..

सोचता हूँ.. तुम होते यहाँ तो  बहार होती बेरुत भी  सोचता हूँ.. तुम्हारा होना , न होना  ज्यादा मायने नही रखता यार !  यादों का भी साथ बहुत होता...