बुधवार, 27 मार्च 2019

मन्दिर नही जाना पड़ेगा

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जब घर में दुनिया समा जाये 
तो वो घर, घर नही रह जाता 

जब छोटे बोलने लगे बेहद 
बुजुर्गो की बातें कौन सुने तब 

रुत होता हैं रार, तकरार का 
हर बखत लड़ने-झगड़ने से हल नही निकलता कोई 

'गुरुदेव 'की मानों तो 
घर में बना लो अगर शांति तो 
मन्दिर नही जाना पड़ेगा 
सुबहो-शाम 

कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

चित्र - गूगल से साभार 

सोमवार, 25 मार्च 2019

नदियाँ अगर बची-खुची हैं तो

नदियाँ अगर बची-खुची हैं तो 
शवदाह के लिए ..

नदियों के गर्भ में 
जो मछलियाँ, केकड़े, झिंगें ..
हैं 
वो हमारे पेट में आने से पहले तक ही 
सुरक्षित और आजाद हैं 

नदियों से हमारा नाता पुश्तैनी रहा हैं 
मन जबभी खिन्न होता था 
आकर इसके किनारों पर 
(हमारे पूर्वज को )
तात्विक बातों का भेद मिलता था 

अब विरले जगहों पर ही 
नांवे चलती हैं 
और शौकियां ही यात्राएं होने लगी हैं 
ज्यादातर 
इसपर 

कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

चित्र - गूगल से साभार 


रविवार, 24 मार्च 2019

मुझे तुम्हारी बाहों में रहना था

मुझे तुम्हारी बाहों में रहना था 

मगर तुमने उचित ना समझा कभी 
बाहों में लटकाए 
पर्स की तरह 
मुझे संग-संग अपने 
घुमाना 

एक रात की बात हैं 
मैं तुम्हारी बाहों के घेरे में सोया था 
और अचानक से नींद टूट गयी 
तब जाना महज वो सपना था 

चित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

शनिवार, 23 मार्च 2019

बसंत

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दिन और अवधि के हिसाब से 
हो जाता हैं अंत बसंत का 
प्रत्येक वर्ष 

लेकिन सच पूछो तो 
बसंत छाया रहता हैं 
एक उम्मीद की तरह 
वर्षभर 
हमारे अंदर 

उसकी यादें 
उसकी बातें 
कहां बिसरा पाता हैं भूले से भी कोई 

आखिर 
कौन नही करना चाहता 
उसकी प्रसंशा करना 
और कौन नही चाहता 
उसके बासंती रंगों में रँगना

सच पूछो तो 
उसका जवाब नही 

और जिसका जवाब नही 
उसके बारे में 
क्या कहना !

हर शब्द कम पड़ जायेगा
आखिर में.

कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

चित्र - गूगल से साभार 

शुक्रवार, 22 मार्च 2019

एकदिन ये भी हैं

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सपने टूटें 
शीशे जैसे 
कि जुड़ना भी मुश्किल 

तुम रूठे 
पर्वत जैसे 
कि बात करना भी मुश्किल 

दूभर लगता हैं 
सांस लेना 
साँसों में 
नाइट्रोज हो जैसे समायी

एकदिन वो भी था 
जब हँस-हँसके 
तुम बातें किया करती थी 
मुझसे 
और एकदिन ये भी हैं 
कि शक्ल भी नही रास आ रहा तुमको मेरा 

कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

चित्र - गूगल से साभार 

गुरुवार, 21 मार्च 2019

होरी आ गयों !

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जोगी जी !
होरी आ गयों 
मन भांग खा बौरा गयों 

तुम बजाओ ढोलक 
मैं बजाऊ झाल 

होरी आ गयों ऊधो !
माधो का हैं बस इन्तजार 

ब्रज में 
अबीर, गुलाल धुपछईयां सा छा गयों 
और गोपियाँ 
साँवरा रंग छोड़ 
सब रंग नहा गयी 

तुमहूँ नाँचो राधा प्यारी !
मीरा बैरन नाँची
श्याम खेलन अइहें होरी 
उगे सूरज हुए 
अभी 
पहर एक 

कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

चित्र - गूगल से साभार 



बुधवार, 20 मार्च 2019

हृदय में लगे चोट का उपचार नही

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हृदय में लगे चोट का उपचार नही 

सुबह-शाम टपकता रहता हैं 
खून 

वक्त भी सफल चिकित्सक नही होता 

यादों और बातों की घाटी में 
बहुरूपिये शिकारियों का राज हो जाता हैं 

तुमको देख ' ला बेली डेम संस मर्सी '
का सा आभास होता हैं 

कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

चित्र - गूगल से साभार 

सोचता हूँ..

सोचता हूँ.. तुम होते यहाँ तो  बहार होती बेरुत भी  सोचता हूँ.. तुम्हारा होना , न होना  ज्यादा मायने नही रखता यार !  यादों का भी साथ बहुत होता...