गुरुवार, 21 मार्च 2019

होरी आ गयों !

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जोगी जी !
होरी आ गयों 
मन भांग खा बौरा गयों 

तुम बजाओ ढोलक 
मैं बजाऊ झाल 

होरी आ गयों ऊधो !
माधो का हैं बस इन्तजार 

ब्रज में 
अबीर, गुलाल धुपछईयां सा छा गयों 
और गोपियाँ 
साँवरा रंग छोड़ 
सब रंग नहा गयी 

तुमहूँ नाँचो राधा प्यारी !
मीरा बैरन नाँची
श्याम खेलन अइहें होरी 
उगे सूरज हुए 
अभी 
पहर एक 

कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

चित्र - गूगल से साभार 



बुधवार, 20 मार्च 2019

हृदय में लगे चोट का उपचार नही

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हृदय में लगे चोट का उपचार नही 

सुबह-शाम टपकता रहता हैं 
खून 

वक्त भी सफल चिकित्सक नही होता 

यादों और बातों की घाटी में 
बहुरूपिये शिकारियों का राज हो जाता हैं 

तुमको देख ' ला बेली डेम संस मर्सी '
का सा आभास होता हैं 

कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

चित्र - गूगल से साभार 

मंगलवार, 19 मार्च 2019

सुबह खिली

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सुबह खिली 
फूल जैसी 

खुशबू से उसके 
तरो-ताजगी भरता 
हर प्राणी 

पंछी भौरे सा 
बहके-बहके से 
चहके हैं 
मेरे अटारी.

कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

चित्र - गूगल से साभार 

सोमवार, 18 मार्च 2019

और तुम

चिड़िया
चाँद 
और तुम 

चहकते
दहकते 
रहते हो 
हर बखत

फूल 
आकाश 
और तुम

महकते 
मचलते 
रहते हो 
सतत 

चित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

रविवार, 17 मार्च 2019

आज से रास्ते जुदा हो जायेंगे

उसने मुड़कर भी न देखा 
मेरी तरफ 

मेरी तरफ 
देखता तो 
अपनापन झलकता 

आज से रास्ते जुदा हो जायेंगे 
कल से तुम्हे देखने हम यहाँ न आया करेंगे 

भूल जायेंगे 
कि हमने भी कभी 
किसीसे प्यार किया था 

और किसी पर 
आँख मुदकर विश्वास किया था 

चित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

शनिवार, 16 मार्च 2019

मिलते रहना यार !

वो 
जब-जब मुझसे मिलती हैं 
फूल जैसे खिलती हैं 

उसका खिलना देखकर 
मैं मन ही मन मुस्काता हूँ 

बातों के कम्पन से लगता हैं 
उसका हृदय स्पंदित होता हैं 
जोर-जोर से 

उसकी शर्म-हया से सराबोर हँसी
मुझसे कहती हैं हरबार
मिलते रहना यार !

रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

शुक्रवार, 15 मार्च 2019

विरह-वेदना

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चार दिन की चाँदनीं था मेरा प्यार 

फिर तो उसके आसमान में 
विरह की घटा ऐसे छायी कि
देह दुबली होती गई 
इश्क़ अविरल होता गया 

सैकड़ो कष्ट मानो हथौड़े के प्रहार समान 
गिरता रहा 
मुझपर 
और मैं  चुपचाप झेलता रहा 
हाँ, बस आह ! निकली होगी 
वो भी कभी कभार 

मुझपर 
जो बीती 
उसके वजह से 
वह अगर जानती भी  तो कहती -
कम हैं 

किसे फर्क पड़ता हैं 
जिस तन को लगे 
जिस मन को लगे 
अगर उसे नही 
तो किसे 
फर्क पड़ता हैं 
विरह-वेदना का !

कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

चित्र - गूगल से साभार 


सोचता हूँ..

सोचता हूँ.. तुम होते यहाँ तो  बहार होती बेरुत भी  सोचता हूँ.. तुम्हारा होना , न होना  ज्यादा मायने नही रखता यार !  यादों का भी साथ बहुत होता...