शनिवार, 23 अक्टूबर 2021

तुम चलोगी क्या !

 

मुझे बादलों के उस पार जाना है 

तुम चलोगी क्या  !

साथ मेरे


मुझे वहाँ आशियाँ बनाना है 

हाथ बटाओगी क्या !

मेरा वहाँ..


अगर चलती तो

साथ मिलकर

बाग लगाते, साग-सब्जियां भी..


एक दूसरे को देखते हुए 

पौधों को पानी देते 

और ख़ुदको

बहुत ज्यादा सुकून और शांति..


और अपने प्यार को गहरा नीला आसमान देते

स्वछंदता का हाथ तुम्हारे साथ थामकर।


- रवीन्द्र भारद्वाज


सोमवार, 20 सितंबर 2021

मैं हमेशा तुम्हें खुश देखना चाहता हूँ


 तेरे चुप रहने से

मेरा मन संशय में रहता हैं

होंठो पर 
जब नही खिंचती हँसी की लकीर
सोचता हूँ 
कि कुछ तो गलत कर दिया हैं मैंने।

मैं हमेशा तुम्हें खुश देखना चाहता हूँ
और खुशियां ही खुशियां भेट करना चाहता हूँ 
तुमको।

 _रवीन्द्र भारद्वाज_

शुक्रवार, 10 सितंबर 2021

सुबह और कली

 

सुबह 

मेरी खिड़की की पल्लों पर 

ठहरी हैं 

कि कब खोलूंगा मैं खिड़की 


कली 

बाँहें अपनी खोल, खड़ी है

कि कब समाउंगा मैं 

उसमें।


_रवीन्द्र भारद्वाज_

रविवार, 29 अगस्त 2021

तुम मेरे हो...

तुमसे गुफ़्तगू करके
लगता है 
मैं जन्नत में हूँ 

बरसो की माँगी दुआ 
जैसे 
आज ही 
मेरे कदमों में हो।

तुम खुशबू की तरह आती हो 
मेरे फेफड़े में 
और चली जाती हो जल्दी-जल्दी 
कि जैसे शाम ढलनेवाली हो
अभी-अभी।

फिरभी एक सुकून भर के जाती हो 
ह्दय में 
कि तुम मेरे हो, सिर्फ मेरे.. 
जब तुम यह कहके जाती हो..

_रवीन्द्र भारद्वाज_

गुरुवार, 26 अगस्त 2021

एक समझौता

 

चलो 
खुदसे
एक समझौता करते है
मुझे नींद आ जाये 
कुछ ऐसा करते है 

जो कुछ मुझे सताता है
तुम्हें नही 
उससे तौबा करते है !

गली, नुक्क्ड़ पर  
बारात आयी थी जो 
कभी 
प्रीत की 
उसे विदा करते हैं 

तुम हवा के साथ बहती हो 
जैसा कि अजीज दोस्त हैं वो तुम्हारा 
उसीके पास रख लो
-अपनी मेरी यादे-
खुदा से एक यही दुआ करते है !

_रवीन्द्र भारद्वाज_





शनिवार, 21 अगस्त 2021

तेरे मेरे प्रेम की धरातल

तेरे मेरे प्रेम की धरातल
ऊबड़-खाबड़ है बड़ी 

चलना 
इसपर
दुर्गम जान पड़ता है
एक पर्वतारोही की तरह 

सदियों के सफर के बाद भी 
आराम नही मिला है
अभीतक 
दिल को 

चैन और क़रार भी छीन गया है 
मुद्दत पहले ही 
एक तरफ तुम्हारे चलने से
दूसरे तरफ मेरे चलने से।

रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

शनिवार, 14 अगस्त 2021

घर, प्रेम और तुम

तुम्हारे प्रेम के बूते 
मेरा घर खड़ा  हुआ है

तुम्हारे संस्कार से 
सजा है 
कमरे मे 
हर चीज
करीने से।

तुम जबतक नही आयी थी 
जंगल की तन्हाई एवं एकांकीपन से भरा था 
यह घर

और आकर अब 
जाने की बात करती हो 
क्यों !
क्या हमसे ज्यादा तुम्हें इस घर से हमदर्दी नही थी 
कभी !

कभी घर छोड़कर जाती थी तो 
फिक्र सताती थी 
तुम्हें 
घर की 
बहोत
और अब...

रेखाचित्र व कविता ~ रवीन्द्र भारद्वाज

सोचता हूँ..

सोचता हूँ.. तुम होते यहाँ तो  बहार होती बेरुत भी  सोचता हूँ.. तुम्हारा होना , न होना  ज्यादा मायने नही रखता यार !  यादों का भी साथ बहुत होता...