एक रात थी
बरसात की
चन्द लम्हों का सफर था वो
हमने तय किया उस सफर को
सदियों से लम्बा
हथेलियां एक-दूसरे से गले मिली थी
छतरी से फिसलके बूंदे
बौछारों से भिंगो रही थी
हमें
सिहरन सी दौड़ती तन-मन में
जब बूंदे बहती
नहर सी
हमारे शरीर के इस छोर से उस छोर
और
और करीब होते जाते थे तब हम।
कविता - रवीन्द्र भारद्वाज
चित्र - गूगल से साभार