प्रेम अनुभूति का विषय है..इसीलिए इसकी अभिव्यक्ति की जरूरत सबको महसूस होती है.. अतः,अपनी मौलिक कविताओं व रेखाचित्रो के माध्यम से, इसे अभिव्यक्त करने की कोशिश कर रहा हू मैं यहाँ.
रविवार, 17 मार्च 2019
शनिवार, 16 मार्च 2019
शुक्रवार, 15 मार्च 2019
विरह-वेदना
चार दिन की चाँदनीं था मेरा प्यार
फिर तो उसके आसमान में
विरह की घटा ऐसे छायी कि
देह दुबली होती गई
इश्क़ अविरल होता गया
सैकड़ो कष्ट मानो हथौड़े के प्रहार समान
गिरता रहा
मुझपर
और मैं चुपचाप झेलता रहा
हाँ, बस आह ! निकली होगी
वो भी कभी कभार
मुझपर
जो बीती
उसके वजह से
वह अगर जानती भी तो कहती -
कम हैं
किसे फर्क पड़ता हैं
जिस तन को लगे
जिस मन को लगे
अगर उसे नही
तो किसे
फर्क पड़ता हैं
विरह-वेदना का !
कविता - रवीन्द्र भारद्वाज
चित्र - गूगल से साभार
गुरुवार, 14 मार्च 2019
खाली समय में
नितांत खाली समय में
मुझे उसकी याद आयी
जो भूल चुकी हैं ये कि
उसे भी किसीसे प्यार था
इतना कि
सम्हालें नही सम्हलता था
उसका नादान दिल !
वो कालेज के दिन थे
माघ-पूस महीने की रातों में भी
रतजगे जश्न की तरह होती थी
खैर, तुम्हे मुझे भूले
बरसों हुए
लेकिन मुझे तुम्हे भुलाना आया ही नही आजतक
कविता - रवीन्द्र भारद्वाज
चित्र - गूगल से साभार
बुधवार, 13 मार्च 2019
बेटी कल विदा होंगी
बेटी
कल विदा होगी
आज जश्न का माहौल हैं
और ठुमक-ठुमककर नाँच रहा हैं
बंदरवाला नाँच
हरकोई
हर कोई
इस बात से अनभिज्ञ हैं
कल विदा होंगी
बेटी
ऐसे शहर को
जिसे पर्यटक के तरह भी नही घुमा हैं
उसने
कि कैसे बंद करके रख ली हैं आँसू
अपने पर्श में
कोई खंगालना भी नही चाहता
कि उसमे कितना दर्द हैं
बेगाने शहर को रुखसत होने से पहले
सिसकते हुए
मैंने देखा था उसे
खिड़की से बाहर तांकते हुए
शून्य में
आखिर उसे शून्य से ही शुरुआत करनी होंगी
रिश्ते-नाते
घर-परिवार
यहाँतक कि जिन्दगी भी
बेटी
कल विदा होंगी
और हँसनेवाले भी रोयेंगे
बेवजह
जबकि वजह तो
नई बहुरिया को तलाशनी होंगी.
कविता - रवीन्द्र भारद्वाज
चित्र - गूगल से साभार
मंगलवार, 12 मार्च 2019
ओ परी !
ओ परी !
बड़ी प्यारी लग रही हो आज !
आज फिजाओं में मस्ती हैं
और सागर पर फेनिल लहरे
मेरे हाथ में काश ! तुम्हारा हाथ होता !
दौड़ते-दौड़ते लगा देते डूबकी
इश्क़ के खारे पानी में
और धूप में लेटकर
कविता गुलजार की
और अख्तर साहब की
सुनाता
तुम्हें
यह एहसास तुमको हो जाता
कही न कही
मैं भी शायर बन चुका हूँ
तुम्हारे इश्क़ में पड़कर
कविता - रवीन्द्र भारद्वाज
चित्र - गूगल से साभार
सोमवार, 11 मार्च 2019
ये जग बैरी रे
मेरा तेरा
ये जग बैरी रे
ये जग
वही काला जहरीला साँप
जिसे कितना भी दूध पिला दो
डसेगा
एकदिन
जरुर
चलो
हवाओ संग उड़ चले
क्षितिज के उस पार
सूना हैं
वहाँ इस जहां के तरह मतलबपरस्ती नही
कविता - रवीन्द्र भारद्वाज
चित्र - गूगल से साभार
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