
वो ऐसे गुम हो गयी हैं
जैसे हवा
हवा के निशां नही होते
उसके भी नही हैं
कितने पतझर
कितने बसंत
देखे
अकेले
उसे इसकी खबर ही नहीं
कहते हैं
पृथ्वी गोल हैं
जहाँ से चलोगे
वही आकर ठहरोगे
लेकिन
मेरे जीवन में
यह सच
होता हुआ नही लगा
कभी मुझे
कविता - रवीन्द्र भारद्वाज
चित्र - गूगल से साभार




