सोमवार, 17 जून 2019

इंतजार

दिनभर दरवाजा खुला रहता है
लगभग आधी रात को बंद होता है

वह उठती है सुबह-सवेरे
और सोती है देर रात-अंधेरे

उसमे कर्तव्यपरायणता इस कदर समा गई है कि
भूल गई है खुदको सँवारना
कि कैसे किशोरावस्था में सजने संवरने में खूब मन लगता था उसका

और घूमने की बात छिड़ते ही 
वह खुश हो जाती थी खुली खिड़की सी

दरअसल, वो घर से निकले ही नही की 
इंतजार की सुर छेड़ देती है उसकी अंतरात्मा

कभी-कभी यू भी होता है कि 
वो घर मे सो रहे होते है
और वह किसी इंतजार में गुम रहती है

रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज


रविवार, 16 जून 2019

तुम याद आयी

तुम याद आयी यू कि
बरखा से पहले बौछार आये

तुम इस तरह से बरसी 
कि भीगा-भीगा तन जलने लगा 

प्रीत जो भुलाई थी उसकी लपटों से 
मैं पिघलने लगा मोम सा

अब कैसे लौटू तेरी तरफ 
मान लो मैं किसी पिजड़े में हूँ 
और चाबी डुबो दी गई है समुद्र में

रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

बुधवार, 12 जून 2019

कुछ कदम और

रूह को रूह से मिलने दो 

अभी कुछ कदम और चलना है बाकी 
चलने दो 

वहाँ से हम-तुम एक हो जायेंगे

और सारी दुनिया अकेली

रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज



सोमवार, 10 जून 2019

प्रीत की डगर पर

अनजानी सी प्रीत की डगर पर 
जब मैं चला था 
एक तुमपर ही भरोसा था तब 

बीच डगर में 
टूट गया भरोसा 
फिर प्यार की बुनियाद ही खिसकने लगी 

और एकदिन प्यार का नामोनिशान तक 
लूट गया 
बेदर्दी जमाने ने
और बचा-खुचा मेरी माशूका ने

रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज 


शनिवार, 8 जून 2019

ठहरना नही है

तुम आये थे यही सोचकर 
ठहरना नही है 

वरना 
बैठकर 
आधेक घण्टे 
बतियाते

मेरे अतिथि-सत्कार का लुत्फ उठाते जरूर 

पता नही तुम क्या देखने आये थे 
मुझे 
या यह घर 
जो कभी हमारा अपना हुआ करता था

सबकुछ बिखरा-बिखरा भी देखकर 
सजाकर करीने से रखना भी 
उचित ना समझा 
मेरा और तुम्हारा विगत चार वर्ष 
तलाक़ के बाद के

रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

गुरुवार, 6 जून 2019

कितनी दफा

कितनी दफा शाम को ढलते देखा है 
रात में 

कितनी दफा आधी रात के बाद लिखी है कविता 
अतिशय प्रणय महसुसकर 

तुम कितनी दफा मिली 
लेकिन हर दफा हाथ मेरा खाली रहा 
तुम्हारा प्रेम मेरे अंजुरी में पानी जैसा आया था न
हरबार

रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

मंगलवार, 4 जून 2019

बीते दिनों में

बीते दिनों में 
कुछ-कुछ तुम बची हो 
कुछ-कुछ हम बचे है 

बाकी सब नदारद हो चुका है
चंचल चितवन
रुई के फाहे सी नर्म बातें
इक्का-दुक्का अनायास हुई मुलाकातें 

चौक
गली 
मन्दिर
और पगडण्डी
टूटे-फूटे खण्डहर से दिखते है 

कहाँ तुम बस गयी हो 
कि इधर कभी आना ही नही हुआ 
तुम्हारा 

और कहाँ मैं हु कि
दूर-दूर तक दिखाई ही नही देती
तुम।

रेखचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज 

सोचता हूँ..

सोचता हूँ.. तुम होते यहाँ तो  बहार होती बेरुत भी  सोचता हूँ.. तुम्हारा होना , न होना  ज्यादा मायने नही रखता यार !  यादों का भी साथ बहुत होता...