दिनभर दरवाजा खुला रहता है
लगभग आधी रात को बंद होता है
वह उठती है सुबह-सवेरे
और सोती है देर रात-अंधेरे
उसमे कर्तव्यपरायणता इस कदर समा गई है कि
भूल गई है खुदको सँवारना
कि कैसे किशोरावस्था में सजने संवरने में खूब मन लगता था उसका
और घूमने की बात छिड़ते ही
वह खुश हो जाती थी खुली खिड़की सी
दरअसल, वो घर से निकले ही नही की
इंतजार की सुर छेड़ देती है उसकी अंतरात्मा
कभी-कभी यू भी होता है कि
वो घर मे सो रहे होते है
और वह किसी इंतजार में गुम रहती है
रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज