शुक्रवार, 18 जनवरी 2019

मैं बट गई


मैं बट गई
दो हिस्सों में

एक हिस्से में, मेरा शरीर हैं
दुसरे में, मेरा हृदय

हृदय, उसके पास हैं जिसके पास हृदय नही
और शरीर, उसके पास हैं जिसके पास भी हृदय नही.

रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

गुरुवार, 17 जनवरी 2019

गाँव में डर समा गया हैं

गूगल से साभार 
कही कोई बात तो हैं 
जो मुझे सोने नही देती ठीक से 

गाँव में 
डर समा गया हैं 

कोई किसीका हालचाल लेने से भी कतराता हैं 

जबसे हरखू का 
घर जला हैं 

भय की आग में जल रहा हैं हरकोई 

किसने जलाया 
क्यों जलाया 
ये हरखू को भी नही पता 

उड़ती-उड़ती बात सुनी हैं 
हरखू की बेटी शादी लायक हो चुकी हैं 
और वह दिन-रात एक करके 
एक-एक पैसा जोड़ रहा था 
उसे ब्याहने के लिए

लेकिन चौधरी का बेटा 
सूना हैं घूरता रहता हैं उसको बहुत 

शायद यही कारण पर्याप्त हैं 
उसका घर जल जाने के लिए|
- रवीन्द्र भारद्वाज

बुधवार, 16 जनवरी 2019

बतियाना बहुत जरूरी हो गया हैं

गूगल से साभार 
वो भोजन पकाने में मशगूल रहती हैं 

मैं कविता रचने में 

बच्चे खेलने में ..

ऐसे बहुत दिन से चल रहा हैं 
थोड़ा पास बैठकर 
साथ-साथ 
बतियाना बहुत जरूरी हो गया हैं
- रवीन्द्र भारद्वाज

सोमवार, 14 जनवरी 2019

वो वक्त चुप हैं

हवा में तैरती हैं 
गूंज तुम्हारी 

तुम्हारे दुपट्टे के झुटपुटे 
में 
थी 
जिन्दगी हमारी 

किसने किया 
हमें तुमसे अलग 
चलो 
पूछें 
आज 
उस वक्त की क्या थी मजबूरी 

वो वक्त 
चुप हैं
मौन के तरह 

लेकिन 
मौन की प्रकृति 
अशांत होती हैं सदा.

रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

रविवार, 13 जनवरी 2019

तुझसे बिछड़कर


तुझसे बिछड़कर
खुश तो नही हूँ मैं

पर
लगता था
जिन्दा नही रह पाउँगी मैं
तुमसे अलग होकर

लेकिन अबभी देखो न
जिन्दा हूँ मैं

बात तबकी हैं
जब बात बनने ही वाली थी
हमदोनो लगभग मिल ही जानेवाले थे
एक-दुसरे के गले.

रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज 

शनिवार, 12 जनवरी 2019

तुम्हारे आने के बाद


तुम्हारे आने से पहले
घर कबाड़खाना था

अब वही घर
चमकता हैं
दमकता हैं
आशियाना लगता हैं  

कमरा आसमान जितना फैला हुआ लगता हैं

दीवारों पर टंगी
तुम्हारी तस्वीरे
मुस्काती रहती हैं सदा

तुम्हे देख-देख मैं भी मुस्का लेता हू
दिन में दो-चार बार.

रेखाचित्र व कविता -रवीन्द्र भारद्वाज  



शुक्रवार, 11 जनवरी 2019

उम्र रफ़्ता-रफ़्ता गुजरती रही


उम्र रफ़्ता-रफ़्ता गुजरती रही 

सुध न था 
बेसुध हो 
चलता रहा..

यहाँ-वहाँ
मिली ठोकरे हजार 
पर दिल सम्हलता रहा 
जैसे लगा हो ठोकर 
अभी तो पहली बार.

तुमसे मिलकर 
मेरी दुनिया ही बदल गई
लगा 
जीने लगा हूँ 
भूलकर बातें तमाम.

वो वक्त था खुशनुमां 
तो ये वक्त भी नही बुरा 
सोचकर
तेरी यादो के कारवाँ संग गुजरता रहा..

रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

सोचता हूँ..

सोचता हूँ.. तुम होते यहाँ तो  बहार होती बेरुत भी  सोचता हूँ.. तुम्हारा होना , न होना  ज्यादा मायने नही रखता यार !  यादों का भी साथ बहुत होता...