मंगलवार, 27 नवंबर 2018

मानांकि इश्क हमारा मूक है



हम शिकवा करे
कि शिकायत करे

है जब तू रूबरू
भूलके सब शिकवे-गिले
क्यों ना हम प्यार करे !

ये भी मुमकिन है
हम जता ना पाये वो प्यार
जो बरसों पहले आग जैसे धधकता था

ये भी मुमकिन है
राख की ढेर में
कोई तो चिंगारी दबी होंगी
जो बुझी नही होंगी अभीभी.

अभीभी
कुछ तो होंगा हमारे दरम्यान
मानाकि
इश्क हमारा मूक हो जिया है
बरसों तक.
रेखाचित्र व कविता -रवीन्द्र भारद्वाज

सोमवार, 26 नवंबर 2018

हम हमारे रहे


आज फिर
तुम्हारा बाल
खुला था

जुल्फों में
सघन जंगल का
अंधेरा था

मैं
उनमे ही
खुदको खो देना चाहता था

कुछ इस तरह से
कि मैं किसीका खैर-खबर ना लू
ना तुम लो

कि हम
हमारे रहे
हमेशा बस हम हमारे रहे.

रेखाचित्र व कविता -रवीन्द्र भारद्वाज



शनिवार, 24 नवंबर 2018

बहुत हद तक मुमकिन है..


तुम्हारे कदमों के निशान अब नही यहाँ

यही तुम चले थे
थिरकें थे
लगभग नाँचे भी थे

अब यहाँ बहुत गर्मी पड़ती है
दिल में बेचैनी सी रहती है

शाम फ़ीका-फ़ीका लगता है
तुम्हारे बिना

रातें
बंजर हो गई है

बहुत हद तक मुमकिन है
तुम मुझे भूल गई होंगी  
पर भूलने की क्या वजह रही होंगी
सोचता रहता हू..

मैंने तो ये भी सोच लिया था
मैं तुम्हारे लायक नही..
क्या यह सच है जी !

तुम मुझे धक्का दे दीए न 
स्वर्ग से
नर्क में.

रेखाचित्र व कविता -रवीन्द्र भारद्वाज



शुक्रवार, 23 नवंबर 2018

नदी को कब रोंका था मैंने

बदल जाना इतना तेरा 
जितना इंसान नही बदलता

नदी को कब रोका था मैंने
वह बहती ही रही
अनवरत

पर मुझे अपने अंदर नही रहने दी
हालांकि शीतलता, निर्मलता बहुत गहरे तक थी
उसमे.

एक भूल या गलती थी मेरी कि
मेरे आस-पास भी नही भटकती दिखती
तुम्हारी रूह.

हालांकि
मुझसे जबरन लिपटी रही थी
सदियों तक
तुम्हारी रूह.

रेखाचित्र व कविता -रवीन्द्र भारद्वाज




बुधवार, 21 नवंबर 2018

वो मसीहा था


जो तुम्हे छोड़ दिया 
वो मसीहा था 

जो तुम्हारे साथ है 
वो नसीब है 

जो तुम्हारे करीब है 
वो गरीब है 

जो तुम्हारे साथ-साथ चलता है 
वो एहसास है 

वो कुछ नही है 
जिसे बहुत कुछ मान लिया है तुमने.
रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

मंगलवार, 20 नवंबर 2018

तीन बन्दर


मेरा उसका कुछ-कुछ चल रहा था
मान लो प्यार-मोहब्बत जैसा
हम निगाहों से बाते करते थे
और बातो से मुलाकाते

हम एक-दुसरे के बहुत ही करीब थे
पर ना जाने किसकी नजर लगी
हम एकायक दूर होने लगे

एकदिन मुड़कर पीछे देखे
गौर से उसे
लगा-
मैंने तो खो दिया है उसे

वो नायाब थी
और बहुत कुछ हो गई थी मेरी
मान लो जिन्दगी की पर्याय बन चुकी थी मेरी

और मैंने गौर किया
वो बदल चुकी है
इतना
जितना मौसम बदल जाता है..

वो किसी गैर नही
मेरे अपने के तरफ मुड़ चुकी थी
या यु कहे वो जुड़ना चाहती थी उससे

मैंने भी मन बना लिया था कि
उसे रोकूंगा नही
जुड़ने से

पर हरबार मुझे देखकर जाती थी वो
मेरे अपने के पास
सो एक टिस सी हो ही जाती थी सीने में

और
धीरे-धीरे मुझे जलन भी होने लगा था
बेतहाशा
बेहिसाब

और मै किसीसे कुछ कह भी नही सकता था
ना उससे
ना मेरे अपने से

मेरा अपना
फिरभी जानता था
मै क्यू ऐसा होता जा रहा हू

मै खुश रहू
खुश दिखू
इस कोशिश में
उसने उससे बैर लिया
या यु कहे उसने उससे मुँह फेर लिया

फिर तो वही होना था
जो हमेशा से होता आया है
आप सोच रहे होंगे क्या !

ना प्यार रहा
मेरे हक में
ना यार रहा
मेरा सच्चा !

उसे बुरा बना दी
पलभर में

फिर क्या हुआ
तीन बन्दर
बुरा मत कहो
बुरा मत सुनो
बुरा मत देखो वाले

भूल गये
गांधीजी का यह वाक्य.
रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज 


सोमवार, 19 नवंबर 2018

काश !


काश !
रातें तेरी
मेरी बाहों में कटती

मैं जुल्फों में
ऊँगली फेरता तेरे

माथे को चूमता
प्यार जताने को तेरे

तुम्हे कविता सुनाता
सुनकर
काश ! तुमको प्यार आता बहुत मुझपर
रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज 

सोचता हूँ..

सोचता हूँ.. तुम होते यहाँ तो  बहार होती बेरुत भी  सोचता हूँ.. तुम्हारा होना , न होना  ज्यादा मायने नही रखता यार !  यादों का भी साथ बहुत होता...