उड़ जाओ परिंदों
बहेलिया हमी लोगों के बीच बैठा है
तुम फर्क नही कर पाओगे कि
कौन यहाँ चोर है और कौन साहू
शक की कोई गुंजाइश ही नही उठती
फिर तो
इंसानो में दरिंदगी इतनी पली-बढ़ी है कि
अभीभी मानव का आदिम होने का ही आभास होता है
नृशंसता और बर्बरता का जमाना गया नही है
जरा सोचिए तो
कितनी सभ्यताएं हम लांघ चुके है
फिरभी सभ्य हुए है हम कितने !
कविता - रवीन्द्र भारद्वाज
चित्र - गूगल से साभार
आपकी लिखी रचना "पाँच लिंकों का आनन्द" में गुरुवार 20 जून 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीय आपका सादर
हटाएंइस रचना को 'पाँच लिंको का आनंद" पर साझा करने के लिए 🙏
वाह!!बहुत खूब!
जवाब देंहटाएंअच्छी कविता।
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक सृजन पाखंडी मानव मुखौटे लगाये खड़ा हर दिशा में ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएं... बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति है ।
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