ऊँचा
बहुत ऊँचा हैं
पहाड़
पहाड़ के बाशिंदे
पहाड़ से भी ऊपर
चढने का ख्वाहिश रखते हैं
पहाड़ो से
निकली नदीयाँ
पिता कहके पुकारती हैं उन्हें
पिता नही चाहता
उसकी पुत्री
सदा-सदा के लिए
दूर चली जाये
नदीयों को
सागर पियाँ से
मिलने की लालसा हैं बहुत प्रबल
इसलिए
वह अपने पिता की छत्रछाया को तजकर
बहुत दूर निकल चुकी हैं
पिता बूढा हो चला हैं
उसके घुटने में दर्द होता हैं
असह्य
वह अगोरता हैं
कब उसकी पुत्रियाँ आये
और एक गिलास पानी देकर
झट बाम लगा दे..
कविता - रवीन्द्र भारद्वाज
चित्र - गूगल से साभार
भावपूर्ण रचना। पहाड़ और नदी का रिश्ता सर्वदा-सर्वदा का है। नदी पुत्री स्वरुप है जो पिता अर्थात पहाड़ का संवर्धन आपने आंसुओं की बारिश से करती है। बेहतरीन लेखन हेतु बधाई आदरणीय रवीन्द्र जी।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर प्रतिक्रिया आपकी.....
हटाएंबहुत-बहुत आभार आदरणीय।
बहुत सुंदर भाव!!!
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत आभार..... आदरणीय।
हटाएंबेहतरीन रचना...
जवाब देंहटाएंसादर..
जी बहुत-बहुत आभार..... आदरणीय सादर
हटाएंबहुत सुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत-बहुत आभार..... आदरणीया
हटाएंसादर
बहुत अच्छा,
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत आभार...... आदरणीय आपका।
हटाएंबहुत सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंजी बहुत-बहुत आभार..... आदरणीय।
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