सोमवार, 10 दिसंबर 2018

एक नदी और दो किनारा


एक नदी 

और दो किनारा 


दूर 

बड़ी दूर 
है मंजिल 
नदी की 

लेकिन 
बिना किनारे के 
उसकी बहाव नामुमकिन है !


फिरभी 

बहे जा रही है.. वो 
सिकुड़कर, ठिठुरकर
दोनों ही किनारों से 


दोनों ही किनारे 

सूखे है, प्यासे है 
पथरा सी गई है उनकी आँखे 
वस्ल की बरसात की राह तकते-तकते.
रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

सोचता हूँ..

सोचता हूँ.. तुम होते यहाँ तो  बहार होती बेरुत भी  सोचता हूँ.. तुम्हारा होना , न होना  ज्यादा मायने नही रखता यार !  यादों का भी साथ बहुत होता...