मंगलवार, 12 मार्च 2019

ओ परी !

ओ परी !
बड़ी प्यारी लग रही हो आज !

आज फिजाओं में मस्ती हैं 

और सागर पर फेनिल लहरे 

मेरे हाथ में काश ! तुम्हारा हाथ होता !
दौड़ते-दौड़ते लगा देते डूबकी
इश्क़ के खारे पानी में 

और धूप में लेटकर 
कविता गुलजार की 
और अख्तर साहब की 
सुनाता 
तुम्हें 
यह एहसास तुमको हो जाता 
कही न कही 
मैं भी शायर बन चुका हूँ 
तुम्हारे इश्क़ में पड़कर

कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

चित्र - गूगल से साभार 


सोमवार, 11 मार्च 2019

ये जग बैरी रे

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मेरा तेरा 
ये जग बैरी रे 

ये जग 
वही काला जहरीला साँप
जिसे कितना भी दूध पिला दो 
डसेगा 
एकदिन 
जरुर 

चलो 
हवाओ संग उड़ चले 
क्षितिज के उस पार 

सूना हैं 
वहाँ इस जहां के तरह मतलबपरस्ती नही 

कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

चित्र - गूगल से साभार 

रविवार, 10 मार्च 2019

कब लौटोंगी

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तन की आग बूझें ना बूझें सही 
पर मन की आग बुझा दो 

कुछ इस तरह 
मुझें अपने सीने से लगा 
पलभर को सही सुला दो 

मैं बरसों से जाग रहा हूँ 
बेकरारी का धूल फांक रहा हूँ 

किसीरोज चैन से नही सोया 
नींद से जगा देते हैं 
बूरे सपने 

तेरे लौटने का रास्ता 
सदियों से ताक़ रहा हूँ 
कब लौटोंगी
क्या कभी नही !

कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

चित्र - गूगल से साभार 

शनिवार, 9 मार्च 2019

गरीबी बहुत बुरी चीज हैं..

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भठ्ठा के मजदूरों को देखकर 
वह बोली - 
गरीबी बहुत बुरी चीज हैं..

..भगवान जिसको देता हैं 
खूब देता हैं 
जिसको नही देता हैं 
कुछ नही देता हैं 

कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

चित्र - गूगल से साभार 

शुक्रवार, 8 मार्च 2019

प्रिये !

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प्रिये !
तुम्हे देखने को 
बहुत जी करता हैं 

तुम मीलों दूर क्यूँ चली गई हो 
क्या पास नही रह सकते हम !

वक्त के रवानी में 
बह गया 
वो सबकुछ 
जो बहुत प्यारा लगने लगा था हमें 

कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

चित्र - गूगल से साभार 

गुरुवार, 7 मार्च 2019

फ़गुआ में इस साल

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उमंग के बुलबुलें उठ रहे हैं 
तन-मन में 

तन-मन 
रंगीन हुआ हैं 
बसंती रंगों को 
जबसे फेका हैं 
प्रकृति ने 
हमारे ऊपर 

चलो फ़गुआ में इस साल 
तुम्हारे घर के तरफ आते हैं 
देखकर 
दूर से 
एक-दुसरे को 
मन से मन को 
प्रणय रंग लगायेंगे 

पकवान जैसे 
गालो पर खिलेंगी मुस्कान 
अगर हम एक-दुसरे को दिख जाते हैं 

चलो अबकी साल 
असर राग का दिल में समेटकर 
यादों के टूटे आशियाँ को 
दुरुस्त करने में जुट जाये

हमने एक-दुसरे को सदियों तक चाहा, सराहा हैं 
आखिर 

कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

चित्र - गूगल से साभार 


बुधवार, 6 मार्च 2019

जितनी बार देखू तुझे कम हैं

जितनी बार देखू 
तुझे 
कम हैं 

कम हैं
दिल को सुकून दिलवा पाना 

आदतन 
हुआ हैं ये 
कि मैं तुझसे प्रेम करने लगा हूँ 

तुमपर 
इस कदर 
मरने लगा हूँ 
कि हर समय, हर बखत
तुम्हें सिर्फ तुम्हें
देखने को 
जी चाहता हैं 

रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

सोचता हूँ..

सोचता हूँ.. तुम होते यहाँ तो  बहार होती बेरुत भी  सोचता हूँ.. तुम्हारा होना , न होना  ज्यादा मायने नही रखता यार !  यादों का भी साथ बहुत होता...