जीने दो मुझे
बड़ी मुश्किल से मैं जीता हूँ
खाने को भोजन नहीं मिलता
पूरे दिन धुप-बतास में भटकता -फिरता हूँ
आसमान का छत
माना कि बहुत ख़ूबसूरत लगता है
गर्मीवाली रातों में
लेकिन सर्दी और बरसाती रातें
तन , मन को काट, बाँट देती है
खुली हवा में
कविता - रवीन्द्र भारद्वाज
चित्र - गूगल से साभार
मर्मस्पर्शी
जवाब देंहटाएंसह्दय आभार आपका
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंआभार जी सादर
हटाएंयही तो त्रादसी है ... जीने के लिए कितना स्ट्रगल है ...
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही....आदरणीय
हटाएंसह्दय आभार आपका
मार्मिक
जवाब देंहटाएंजी सह्दय आभार
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