Art by Ravindra Bhardvaj |
एक
आधी रात गये
आधी उम्र गयी
बात कुछ बनी नहीं
बात कुछ बिगड़ी भी नहीं
वो मेरे पास
मैं उसके पास
दो
बड़ा ही खुबसुरत भरम होता हैं
तू अबभी मेरे लिए रोता हैं
जबकि वो जमाने उड़ते चले गये
क्षितिज की ओर
तुम्हारी ओढ़नी की तरह
मैं भी उड़ता था कभी
तुम्हारे आगे-पीछे
अब सामना
होना
दुर्गम जान पड़ता हैं
बरस पर बरस बीत रहे हैं
हम खुद में तुमको ढूढ़ रहे हैं
यह कैसी खोज हैं
कि मिलकर भी
खुद मे
तुमसे
जैसे मिलना ही नही चाहता हूँ मैं तुमसे.
तीन
वो
हवा का झोंका
पुरबा
पछुआ
उसे आते ही
चले जाना हैं
खाब
याद
एहसास
बनकर.
- रवीन्द्र भारद्वाज
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें