शनिवार, 19 जनवरी 2019

तू हैं

मेरी नजर जहाँतक जाती हैं 
वहाँतक तू हैं 

मैं जहाँतक सोच पाता हूँ 
उसकी आखिरी पायदान तू हैं 

तूने जैसे रंग भर दिया हो 
दसों दिशाओं में 
बेसबब,बेमतलब का भी रंग का दुशाला ओढ़े 
तू हैं 

इस 
चुभोती सी सर्द मौसम में 
ह्दय में आग धधकाती
तू हैं 

बसंत की हरियाली बिछाती 
मेरे प्रथम प्रणय पथ में 
तू हैं 

तू हैं मेरे सामीप्य तो 
दुःख मुझसे कातर हैं 

किन्तु दूर होने लगो तो 
साँसों में अड़चन सी होने लगती हैं 
जीवन 
ग्रीष्म की दुपहरी हो जाती हैं 
और रातें 
पलानी से चुति आधी रात की बरसाती रात.

देखो घर-गृहस्थी शुरू करने से पहले 
ऐसा करते हैं 
मिल लेते हैं 
हाँ, सही सूना, मिल लेते हैं 

क्या पता हम साथ-साथ शुरू करना चाह रहे हो 
...अपना घर-गृहस्थी.
रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

2 टिप्‍पणियां:

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सोचता हूँ.. तुम होते यहाँ तो  बहार होती बेरुत भी  सोचता हूँ.. तुम्हारा होना , न होना  ज्यादा मायने नही रखता यार !  यादों का भी साथ बहुत होता...