तुम्हारे बगैर
मेरा जीना
क्या जीना !
हवा को पीना
जहरीले साँप की तरह
ऐसे भी जीना
क्या जीना !
बासंती हुई समग्र पृथ्वी
मेरा चाँद फिरभी
चमकना नही चाहता
ये कैसी हाथापाई हुई
इश्क़ से कि
जान बसने नही देता
प्राण निकलने नही देता
तुम्हारे बगैर
मेरा जीना
क्या जीना !
जो ओझल हैं नजरो से
वो नदी किनारे बैठता हैं
सुबहो-शाम
एकबार देखा था बरसों पहले
लगता हैं
वो वही हैं
मोती जैसे अपने नौकरों-चाकरों से
निकलवाने के लिए
मुझे
रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज