प्रेम अनुभूति का विषय है..इसीलिए इसकी अभिव्यक्ति की जरूरत सबको महसूस होती है.. अतः,अपनी मौलिक कविताओं व रेखाचित्रो के माध्यम से, इसे अभिव्यक्त करने की कोशिश कर रहा हू मैं यहाँ.
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सोचता हूँ..
सोचता हूँ.. तुम होते यहाँ तो बहार होती बेरुत भी सोचता हूँ.. तुम्हारा होना , न होना ज्यादा मायने नही रखता यार ! यादों का भी साथ बहुत होता...

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बड़े ही संगीन जुर्म को अंजाम दिया तुम्हारी इन कजरारी आँखों ने पहले तो नेह के समन्दर छलकते थे इनसे पर अब नफरत के ज्वार उठते हैं...
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सघन जंगल की तन्हाई समेटकर अपनी बाहों में जी रहा हूँ कभी उनसे भेंट होंगी और तसल्ली के कुछ वक्त होंगे उनके पास यही सोचकर जी रहा हूँ जी ...
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मान लो दो आदमी और एक औरत थी दोनो आदमी उसी एक औरत पर आकर्षित थे आकर्षण के विषय में जितना मुझे ज्ञान है बताता हूँ - कुशलता और काबिलियत क...
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 12 अगस्त 2019 को साझा की गई है........."सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबेहतरीन पेन्सिल-स्केच रवीन्द्र जी ! नदी किसी की नहीं होती, सब को भुलावे में रखती है और शहर-दर- शहर भटकती रहती है, शहर को लगता वो उसकी है , पर वो तो हर शहर के लिए बनी है और जब समुन्दर में मिलती है तब उसकी संज्ञा बदल चुकी होती है
जवाब देंहटाएंवाह!!बहुत सुंदर !!
जवाब देंहटाएंआपकी रचनाएँ कुछ तो अलग सा कहती है प्रिय रविन्द्र जी | सस्नेह शुभकामनायें भावपूर्ण सृजन के लिए |
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