सुबह
मेरी खिड़की की पल्लों पर
ठहरी हैं
कि कब खोलूंगा मैं खिड़की
कली
बाँहें अपनी खोल, खड़ी है
कि कब समाउंगा मैं
उसमें।
_रवीन्द्र भारद्वाज_
प्रेम अनुभूति का विषय है..इसीलिए इसकी अभिव्यक्ति की जरूरत सबको महसूस होती है.. अतः,अपनी मौलिक कविताओं व रेखाचित्रो के माध्यम से, इसे अभिव्यक्त करने की कोशिश कर रहा हू मैं यहाँ.
सुबह
मेरी खिड़की की पल्लों पर
ठहरी हैं
कि कब खोलूंगा मैं खिड़की
कली
बाँहें अपनी खोल, खड़ी है
कि कब समाउंगा मैं
उसमें।
_रवीन्द्र भारद्वाज_
सोचता हूँ.. तुम होते यहाँ तो बहार होती बेरुत भी सोचता हूँ.. तुम्हारा होना , न होना ज्यादा मायने नही रखता यार ! यादों का भी साथ बहुत होता...