सोमवार, 5 नवंबर 2018

नदी थी वो


नदी थी वो
मुझमे से उदगम प्रेम
ले चली थी

बही थी
साथ-साथ
कुछ दूर

कुछ दूर बाद ही
वो मुड़ गयी

तोड़कर प्रेम की जलधारा।
रेखाचित्र व कविता -रवीन्द्र भारद्वाज 

10 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. सादर आभार जी..आपका
      हाँ, कुछ-कुछ ऐसा ही है..

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    2. जिसको लिखा वो पढ़लेगी क्या ?

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    3. हाँ,पढ़ तो लेगी..
      पर पता नही वो मेरे ब्लॉग पर आती है कि नही..

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  2. बहुत कम शब्दों में अपने मन की पीड़ा कह दी. बेहतरीन रचना. Keep it up

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    उत्तर
    1. जी सादर आभार आपका..I will try ..
      'धनतेरस' और 'दीवाली' की हार्दिक शुभकामनाए..

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