चाहकर भी तुम नही लौट सकती
चाहकर भी मैं तुम्हें नही बुला सकता
मजबूरियों के पर निकल आये है
चील के तरह मडराते रहते है
आसमान में
जिन्दगी के
राते जलती रहती है
तुलसी के नीचे रखे साँझ के दिया की तरह
कि तुम गर लौटो कभी तो
घर पहचान लो मेरा
रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज
गहरी संवेदना लिए उम्दा प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंअत्यंत आभार आदरणीया
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (04-05-2019) को "सुनो बटोही " (चर्चा अंक-3325) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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अनीता सैनी
चर्चामंच में इस रचना को साझा करने के लिए आभार जी सादर
हटाएंमन की सुंदर अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंअत्यंत आभार आदरणीया
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंआभार आपका आदरणीय
हटाएंअत्यंत आभार आदरणीया
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