सारी रात जगते थे
जब हम मोबाइल पर बातें करते थे
बातें प्याज के छिलके की तरह होती हैं
एक बाद दुसरी
दुसरी के बाद तीसरी
फिर चौथी
पचवी..
वो भी क्या दिन थे
जगना पार लगता था खूब
अब दफ़्तर से आते-आते बिस्तर पर गिर जाते हैं..
रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंसादर
आभार .....जी सादर
हटाएं