रविवार, 20 जनवरी 2019

वो भी क्या दिन थे

सारी रात जगते थे 
जब हम मोबाइल पर बातें करते थे 

बातें प्याज के छिलके की तरह होती हैं 
एक बाद दुसरी 
दुसरी के बाद तीसरी 
फिर चौथी 
पचवी..

वो भी क्या दिन थे 
जगना पार लगता था खूब 

अब दफ़्तर से आते-आते बिस्तर पर गिर जाते हैं..

रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज

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