एक नदी
और दो किनारा
दूर
बड़ी दूर
है मंजिल
नदी की
लेकिन
बिना किनारे के
उसकी बहाव नामुमकिन है !
फिरभी
बहे जा रही है.. वो
सिकुड़कर, ठिठुरकर
दोनों ही किनारों से
दोनों ही किनारे
सूखे है, प्यासे है
पथरा सी गई है उनकी आँखे
वस्ल की बरसात की राह तकते-तकते.
रेखाचित्र व कविता - रवीन्द्र भारद्वाज
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